निकल के घर से चलते चलते, थक गया हूँ मैं।
चला किधर था और किधर, निकल गया हूँ मैं।
रोशनी जो दामन पे छन कर आती थी कांच से।
उसी रोशनी की चमक में झुलस गया हूँ मैं।
सरक के पलक से पाजेब तक पहुंच गया हूँ मैं।
हाथों से मेहंदी के निशां ले गया हूँ मैं।
कहा था तुमने की तुम सरजमीं हो मेरी।
निकल के फलक से उसी जमीं पे गिर गया हूँ मैं।
जो ना कर सका तेरे लिये वो भी कर गया हूँ मैं।
दिन ब दिन हाथ से छूटता चला गया हूँ मैं।
अब भी कोसते हो कि मैं पुरसुकून कैसे हूँ?
मत कहो अब तो कुछ, अब तो मर गया हूँ मैं।