Rekhta

वफा ऐ बेवफा

मेरी कलम को तो फुरसत नही दिल्लगी से।
तेरे कूचे में चिराग कयूं रौशन है बता?
मेरे हर्फों से कालिख जा रही है।।
फिर पुरानी गजल पढ रही हो क्या?

संदूक को घुन नहीं लगा अब तक?।
खतों में खुशबू कोई बाकि है क्या?
मेरी कलम से स्याही सूख रही है।।
आंख से काजल पी रही हो क्या?

मेरे लफ्जों कि सिलावटें बह रही हैं।।
फिर कोई जख्म सिल रही हो क्या?
मेरी रेख़ता-ऐ-रोशनाई जा रही है।।
फिर पुरानी गजल पढ रही हो क्या?

बस चंद कुछ लफज़ और लिख जाने दो।
सब्र करो ग़म ना करो मर जाने दो।
तुम्हारी वकालत में अब गुस्ताखी ना करेंगे।
चलते हैं जल्द इस जिंदगी ही से।
मेरी कलम को तो फुरसत नही दिल्लगी से।

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